मिट्टी के भाव यहाँ ईमान बिक रहा है,
किश्त दर किश्त आज इंसान बिक रहा है |
कज़ा हयात से यहाँ हारेगी भी कहाँ अब,
जब जिंदगी से सस्ता मौत का सामान बिक रहा है|
बाजार लगा दिया पर इसका मोल दोगे कैसे,
जानते भी हो किसकी आँखों का अरमान बिक रहा है |
ये घर आंगन के इंसानों का दाम भी कौन देगा,
जब मंदिरों के बाहर आज भगवान बिक रहा है |
अब तख़्त-ए-इंसाफ तक चल कर जाएं ही हम क्यों,
जब नुक्कड़ पर जज साहब का फरमान बिक रहा है |
इन प्यादों फ़रमाबदारों की है ही बिसात क्या,
जब चंद सिक्को पर सल्तनत का सुल्तान बिक रहा है |
-आयुष द्विवेदी