Thursday 17 December 2020

खुद को ला छोड़ा है समंदर में बहुत दूर हमने,

यहां सब में मैं ही हूं और सब मेरे जैसा है,

हां दिख रहा है तूफान..जाओ पनाह लो किसी किनारे की तुम,

समंदर घर है मेरा मुझे अपने घर में डर कैसा है।

-आयुष द्विवेदी

क़ीमत

मिट्टी के भाव यहाँ ईमान बिक रहा है,
किश्त दर किश्त आज इंसान बिक रहा है |

कज़ा हयात से यहाँ हारेगी भी कहाँ अब,
जब जिंदगी से सस्ता मौत का सामान बिक रहा है|

बाजार लगा दिया पर इसका मोल दोगे कैसे,
जानते भी हो किसकी आँखों का अरमान बिक रहा है |

ये घर आंगन के इंसानों का दाम भी कौन देगा,
जब मंदिरों के बाहर आज भगवान बिक रहा है |

अब तख़्त-ए-इंसाफ तक चल कर जाएं ही हम क्यों,
जब नुक्कड़ पर जज साहब का फरमान बिक रहा है |

इन प्यादों फ़रमाबदारों की है ही बिसात क्या,
जब चंद सिक्को पर सल्तनत का सुल्तान बिक रहा है |

-आयुष द्विवेदी

Tuesday 17 December 2019

एक कश्ती थी...

 एक कश्ती थी...

हां वह एक कश्ती थी जो सबको पार ले जाया करती थी...

दो पाट नदी के इतना ही बस जहां था उसको दिख पाया,
बस इतना ही संसार था उसका किस्मत में उसकी इतना ही बस लिख पाया ।

बस पहुंच किनारे फिर से नदी में आना उसको पड़ता था,
बस यहीं तलक थी हद उसकी रास्ता इससे आगे ना बढ़ता था।

लोग हजारों गुजरे उससे बस वह ना वहां से गुजर सकी,
फिर फिर आती फिर फिर जाती रस्ते में ना रुकी थकी।

सुना था उसने पार नदी के एक शहर है अलबेला,
उसको जन्नत सा था वो लगता देखो किस्मत ने भी फिर क्या खेला।

दिन बदला मौसम बदले महीने सालों में फिर बदल गए,
पेंदी टूटी मस्तूल फटा पाल के चिथड़े भी अब बिखर गए।

मांझी बोला फिर उससे कि चलो अब ठीक तुम्हें कराना है,
आखिर तुम को पार नदी के सब को लाते ले जाना है ।

वह बोली कि देखो मांझी थक चली हूं मैं ,
अब तुम मेरे सारे बंधन तोड़ दो ,
और देखो जो पार नदी वो जन्नत सा है ना,
बस मुझे वहां ले जाकर छोड़ दो ।

फिर एक सुबहरे हुआ कुछ ऐसा जो अभी तलक ना कभी हुआ ,
लगा कि आखिर सुन ही ली उसकी मांझी ने वही दुआ ।

पाट नदी के लांघ के उसको जन्नत में था ला पटका ,
और उसकी जन्नत भी ऐसी की पास भी ना कोई उसके भटका ।

फिर दिन बदला मौसम बदले महीने सालों में फिर बदल गए ,
पेंदी पाल मस्तूल तो छोड़ो अब तो पुर्जे पुर्जे थे बिखर गए ।

अब भी जाओ दिखती है वह अपनी जन्नत में पड़ी वहां ,
मिट्टी में मिल चली है अब था उसको इतना भी इल्म कहां ...

कि आखिर वह एक कश्ती थी..
बिन नदी ना उसकी हस्ती थी...
-आयुष द्विवेदी

Wednesday 2 August 2017

कुछ बदला बदला सा लगता है

कुछ बदला बदला सा लगता है
पर बदला क्या मालूम नहीं

रंग वही है राग वही
कागज कातिब किताब वही
तुम हो वैसी ही ये तो है
मैं अब भी शायद वैसा हूँ

पर फिर भी कुछ तो बदल है
पर बदल क्या मालूम नहीं

दरमियाँ अब भी बात वही
उड़ते फिरते जज़्बात वही
तुम तो मेरी वैसी ही हो
मैं अब भी शायद तेरा हूँ

पर फिर भी कुछ तो बदला है
पर बदला क्या मालूम नहीं

                                        - आयुष द्विवेदी

Sunday 9 April 2017

हमसफ़र

तुम को कब बना पाया हमसफ़र मैं राह का
तुम तो हमेशा से मेरे खेल की सहेली थीं

तुम ज़हन की याद थीं यूं मन को मेरे टटोलती
ख्वाबों में आकर मेरे वो किस्से पुराने खोलती
आंख मिचौली तुमने हमसे कितनी इस दौर में खेली थी
तुम को कब बना पाया हमसफ़र मैं राह का
तुम तो हमेशा से मेरे खेल की सहेली थीं

साथ समय के सारी गुथियाँ सुलझा आया
पर चाह कर भी मन जिसको कभी न बूझ पाया
तुम वही जीवन की मेरे अनबूझी पहेली थीं
तुम को कब बना पाया हमसफ़र मैं राह का
तुम तो हमेशा से मेरे खेल की सहेली थीं

वक़्त के साये में कितने ही चहरे दिखे नए
उनमे से कुछ मैं भूला कुछ ख़ुद ही मुझ को भूल गये
पर उन अनजाने चहरों में तुम सब से अलबेली थीं
तुम को कब बना पाया हमसफ़र मैं राह का
तुम तो हमेशा से मेरे खेल की सहेली थीं

यादें बासी हुईं ज़हन में ख्वाब धीमें धीमें टूट गये
साथ चला था जिनको लेकर सब आगे पीछे छूट गये
इन हालातों में भी याद तुम्हारी अब तक नई नवेली थी
तुम को कब बना पाया हमसफ़र मैं राह का
तुम तो हमेशा से मेरे खेल की सहेली थीं 
                                                             -आयुष द्विवेदी 

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