एक कश्ती थी...
हां वह एक कश्ती थी जो सबको पार ले जाया करती थी...दो पाट नदी के इतना ही बस जहां था उसको दिख पाया,
बस इतना ही संसार था उसका किस्मत में उसकी इतना ही बस लिख पाया ।
बस पहुंच किनारे फिर से नदी में आना उसको पड़ता था,
बस यहीं तलक थी हद उसकी रास्ता इससे आगे ना बढ़ता था।
लोग हजारों गुजरे उससे बस वह ना वहां से गुजर सकी,
फिर फिर आती फिर फिर जाती रस्ते में ना रुकी थकी।
सुना था उसने पार नदी के एक शहर है अलबेला,
उसको जन्नत सा था वो लगता देखो किस्मत ने भी फिर क्या खेला।
दिन बदला मौसम बदले महीने सालों में फिर बदल गए,
पेंदी टूटी मस्तूल फटा पाल के चिथड़े भी अब बिखर गए।
मांझी बोला फिर उससे कि चलो अब ठीक तुम्हें कराना है,
आखिर तुम को पार नदी के सब को लाते ले जाना है ।
वह बोली कि देखो मांझी थक चली हूं मैं ,
अब तुम मेरे सारे बंधन तोड़ दो ,
और देखो जो पार नदी वो जन्नत सा है ना,
बस मुझे वहां ले जाकर छोड़ दो ।
फिर एक सुबहरे हुआ कुछ ऐसा जो अभी तलक ना कभी हुआ ,
लगा कि आखिर सुन ही ली उसकी मांझी ने वही दुआ ।
पाट नदी के लांघ के उसको जन्नत में था ला पटका ,
और उसकी जन्नत भी ऐसी की पास भी ना कोई उसके भटका ।
फिर दिन बदला मौसम बदले महीने सालों में फिर बदल गए ,
पेंदी पाल मस्तूल तो छोड़ो अब तो पुर्जे पुर्जे थे बिखर गए ।
अब भी जाओ दिखती है वह अपनी जन्नत में पड़ी वहां ,
मिट्टी में मिल चली है अब था उसको इतना भी इल्म कहां ...
कि आखिर वह एक कश्ती थी..
बिन नदी ना उसकी हस्ती थी...
-आयुष द्विवेदी