Sunday 9 April 2017

हमसफ़र

तुम को कब बना पाया हमसफ़र मैं राह का
तुम तो हमेशा से मेरे खेल की सहेली थीं

तुम ज़हन की याद थीं यूं मन को मेरे टटोलती
ख्वाबों में आकर मेरे वो किस्से पुराने खोलती
आंख मिचौली तुमने हमसे कितनी इस दौर में खेली थी
तुम को कब बना पाया हमसफ़र मैं राह का
तुम तो हमेशा से मेरे खेल की सहेली थीं

साथ समय के सारी गुथियाँ सुलझा आया
पर चाह कर भी मन जिसको कभी न बूझ पाया
तुम वही जीवन की मेरे अनबूझी पहेली थीं
तुम को कब बना पाया हमसफ़र मैं राह का
तुम तो हमेशा से मेरे खेल की सहेली थीं

वक़्त के साये में कितने ही चहरे दिखे नए
उनमे से कुछ मैं भूला कुछ ख़ुद ही मुझ को भूल गये
पर उन अनजाने चहरों में तुम सब से अलबेली थीं
तुम को कब बना पाया हमसफ़र मैं राह का
तुम तो हमेशा से मेरे खेल की सहेली थीं

यादें बासी हुईं ज़हन में ख्वाब धीमें धीमें टूट गये
साथ चला था जिनको लेकर सब आगे पीछे छूट गये
इन हालातों में भी याद तुम्हारी अब तक नई नवेली थी
तुम को कब बना पाया हमसफ़र मैं राह का
तुम तो हमेशा से मेरे खेल की सहेली थीं 
                                                             -आयुष द्विवेदी 

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