Sunday 9 April 2017

हमसफ़र

तुम को कब बना पाया हमसफ़र मैं राह का
तुम तो हमेशा से मेरे खेल की सहेली थीं

तुम ज़हन की याद थीं यूं मन को मेरे टटोलती
ख्वाबों में आकर मेरे वो किस्से पुराने खोलती
आंख मिचौली तुमने हमसे कितनी इस दौर में खेली थी
तुम को कब बना पाया हमसफ़र मैं राह का
तुम तो हमेशा से मेरे खेल की सहेली थीं

साथ समय के सारी गुथियाँ सुलझा आया
पर चाह कर भी मन जिसको कभी न बूझ पाया
तुम वही जीवन की मेरे अनबूझी पहेली थीं
तुम को कब बना पाया हमसफ़र मैं राह का
तुम तो हमेशा से मेरे खेल की सहेली थीं

वक़्त के साये में कितने ही चहरे दिखे नए
उनमे से कुछ मैं भूला कुछ ख़ुद ही मुझ को भूल गये
पर उन अनजाने चहरों में तुम सब से अलबेली थीं
तुम को कब बना पाया हमसफ़र मैं राह का
तुम तो हमेशा से मेरे खेल की सहेली थीं

यादें बासी हुईं ज़हन में ख्वाब धीमें धीमें टूट गये
साथ चला था जिनको लेकर सब आगे पीछे छूट गये
इन हालातों में भी याद तुम्हारी अब तक नई नवेली थी
तुम को कब बना पाया हमसफ़र मैं राह का
तुम तो हमेशा से मेरे खेल की सहेली थीं 
                                                             -आयुष द्विवेदी 

Friday 7 April 2017

गीत भी अब तो कर लबों पे रुकें...

गीत भी अब तो आ कर लबों पे रुकें
लफ़्ज़ों के बोझ से ये ज़बाँ अब झुके
अक्स मेरा कहीं मुझ में सो सा गया
मेरा साया तलक तुझ में खो सा गया

नाम तेरे किया ज़िन्दगी का सफर
रास्ते मेरे थे मंज़िलो को मगर
तेरी जागीर मै तो बनता रहा
तेरी खातिर उन्हें चल के पाता रहा

तुझ से बावस्ता हैं मेरे हर रंजोगम
हूँ मै खुश या है ये मेरे मन का भरम
तुझ को तेरी कहानी सुनाता रहा
खुद को खो के भी मै तुझ को पाता रहा

तूने समझा नहीं मैं तो तेरा ही था
शाम समझी जिसे वो सवेरा ही था
खुद को खुद से ही लड़ना सिखाता रहा
तुझ में अपनी खुदी को मिटाता रहा

क्या मिला तुझ से मैं जिसकी परवाह करूँ
तू न रब है मेरा जो मैं सज़दा करूँ
बस यही कह के खुद को मनाता रहा
जो लिखा ही न था वो मिटाता रहा
                                           
                                                 -आयुष द्विवेदी

Thursday 6 April 2017

कोई अलग नहीं है

कोई अलग नहीं है
लोग सब वही हैं

कुछ बेपर्दा हो आये हैं
कुछ नें नए नकाब चढ़ाय हैं
अब हम को भी हो चली है आदत इसी ज़माने की
जानबूझ कर भी नकली चहरों अब अपनाने की

वो कहता है वो मेरा है
ये उसका खुद का चेहरा है
ये तेरे चहरों का रंगसाज़ भी कितने कच्चे रंग बनाता है
नम आंखों की दो बूंदो से पूरा रंग उतर जाता है

ये किस्सा तेरा नया नहीं है
सबका है बस कहा नहीं है
तूने अब जा के ये जाना है पर फर्क क्या इस से आयगा
ये चहरों पर चहरों का सौदा एसे ही चलता जायगा

क्योंकि

कोई अलग नहीं है
लोग सब वहीं हैं
                      
                                   -आयुष द्विवेदी

TUJHY MA KAHU YA BETI

Tujhey maa kahu ya beti.

Baabul ka ghar bhi sajaya,
Ghar piya ka bhi hy basaya,
Ek ghar ki laaj bachai to dujey ka maan badaya
Rishto ki fyli sadi tuney fir fir hy lapeti,
Tujhey maa kahu ya beti.

Sang sang do diip jalay
Do ghar aabad banaye
Chhod key angna apna tuney apnaaye paray
Angna mey jalti joti tery har dam yahi hy kahti
Ki tujhey maa kahu ya beti.

Tujhsey hy ghar-baar ye sara
Tujhsey he sansaar ye sarara 
Jaha jaha dekhey ham fir k tera hi vistar ye sara
Apney andar hy tuney ye sari shrasti sameti
Tujhey maa kahu ya beti.

Hy maa tu ki tujhmey mamta
Hy beti tu tujhmey chhamta
Phir na hoti q sang terey hy es samaj mey samta
Ho kar itni vishist tu fir q hy dhra par leti
Tujhy maa kahu ya beti,

Tu shakti ka jivant ruup
Tu mamta ki murat swarup
Hy samay yahi tu agey chal ki hy tujhmey sahas anuup
Har jiivan ki dhaara tujh se hokar hi bahti
Fir tujhey maa kahu yaa beti


Tuney dono priiti sameyti 
Tujhey maa kahu ya beti.
Tujhey maa kahu ya beti                                                                                                                                                 - Ayush Dwivedi

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