Friday 7 April 2017

गीत भी अब तो कर लबों पे रुकें...

गीत भी अब तो आ कर लबों पे रुकें
लफ़्ज़ों के बोझ से ये ज़बाँ अब झुके
अक्स मेरा कहीं मुझ में सो सा गया
मेरा साया तलक तुझ में खो सा गया

नाम तेरे किया ज़िन्दगी का सफर
रास्ते मेरे थे मंज़िलो को मगर
तेरी जागीर मै तो बनता रहा
तेरी खातिर उन्हें चल के पाता रहा

तुझ से बावस्ता हैं मेरे हर रंजोगम
हूँ मै खुश या है ये मेरे मन का भरम
तुझ को तेरी कहानी सुनाता रहा
खुद को खो के भी मै तुझ को पाता रहा

तूने समझा नहीं मैं तो तेरा ही था
शाम समझी जिसे वो सवेरा ही था
खुद को खुद से ही लड़ना सिखाता रहा
तुझ में अपनी खुदी को मिटाता रहा

क्या मिला तुझ से मैं जिसकी परवाह करूँ
तू न रब है मेरा जो मैं सज़दा करूँ
बस यही कह के खुद को मनाता रहा
जो लिखा ही न था वो मिटाता रहा
                                           
                                                 -आयुष द्विवेदी

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